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ते त्वा॒ मदा॑ इन्द्र मादयन्तु शु॒ष्मिणं॑ तुवि॒राध॑सं जरि॒त्रे। एको॑ देव॒त्रा दय॑से॒ हि मर्ता॑न॒स्मिञ्छू॑र॒ सव॑ने मादयस्व ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te tvā madā indra mādayantu śuṣmiṇaṁ tuvirādhasaṁ jaritre | eko devatrā dayase hi martān asmiñ chūra savane mādayasva ||

पद पाठ

ते। त्वा॒। मदाः॑। इ॒न्द्र॒। मा॒द॒य॒न्तु॒। शु॒ष्मिण॑म्। तु॒वि॒ऽराध॑सम्। ज॒रि॒त्रे। एकः॑। दे॒व॒ऽत्रा। दय॑से। हि। मर्ता॑न्। अ॒स्मिन्। शू॒र॒। सव॑ने। मा॒द॒य॒स्व॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:23» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे सब सेनापति और सब सेनाजन परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शूर) निर्भय (इन्द्र) सर्व सेना स्वामी ! (हि) जिस कारण आप (एकः) अकेले (देवत्रा) विद्वानों में जिस (जरित्रे) सत्य की स्तुति करनेवाले के लिये जिन भृत्य जनों से (दयसे) दया करते हो (ते) वे (मदाः) आनन्दयुक्त होते हुए अच्छे भट योद्धाजन (शुष्मिणम्) बलयुक्त (तुविराधसम्) बहुत धन-धान्यवाले (त्वा) आप को (मादयन्तु) हर्षित करें आप (अस्मिन्) इस वर्त्तमान (सवने) युद्ध के लिये प्रेरणा में उन (मर्त्तान्) मनुष्यों को (मादयस्व) आनन्दित करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे सर्व सेनाधिकारियों के पति ! आप सर्वदैव सब पक्षपात को छोड़ कृपा करो और सब को समान भाव से आनन्दित करो, जिससे वे अच्छी रक्षा और सत्कार पाये हुए दुष्टों का निवारण और श्रेष्ठों की रक्षा करके निरन्तर राज्य बढ़ावें ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते सर्वसेनेशाः सर्वे सेनाजनाः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे शूरेन्द्र ! हि यतस्त्वमेको देवत्रा यस्मै जरित्रे येभ्यो भृत्येभ्यश्च दयसे ते मदाः सन्तः शुष्मिणं तुविराधसं त्वा मादयन्तु त्वमस्मिन् सवने तान् मर्तान् मादयस्व ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) (त्वा) त्वाम् (मदाः) आनन्दयुक्ताः सुभटाः (इन्द्र) सर्वसेनास्वामिन् (मादयन्तु) हर्षयन्तु (शुष्मिणम्) बहुबलयुक्तम् (तुविराधसम्) बहुधनधान्यम् (जरित्रे) सत्यस्तावकाय (एकः) असहायः (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु (दयसे) (हि) यतः (मर्त्तान्) मनुष्यान् (अस्मिन्) वर्त्तमाने (शूर) निर्भय (सवने) युद्धाय प्रेरणे (मादयस्व) आनन्दयस्व ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे सर्वसेनाऽधिकारिपते ! त्वं सदा सर्वेषामुपरि पक्षपातं विहाय कृपां विदध्याः सर्वांश्च समभावेनानन्दय यतस्ते सुरक्षिताः सत्कृताः सन्तो दुष्टान्निवार्य श्रेष्ठान् रक्षित्वा राज्यं सततं वर्धयेयुः ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे सेनापती! तू सदैव भेदभाव न करता कृपावंत बन. सर्वांशी समभावाने वागून त्यांना आनंदित कर. ज्यामुळे त्यांचे रक्षण व सत्कार होईल. दुष्टांचे निवारण करून श्रेष्ठांचे रक्षण कर व राज्य उन्नत कर. ॥ ५ ॥